Skip to main content

नील निर्माण का उधोग कैसे शुरू करे (ultra marine idustry)

 नील निर्माण उद्योग (Ultra-marine Industry)

व्यावसायिक स्तर पर नील का विश्लेषण करने पर निम्न घटक पाए जाते हैं:

सिलिका 34 से 43 प्रतिशत तक

एल्युमिना 22 से 28 प्रतिशत तक

गंधक  10 से 16 प्रतिशत तक

सोडियम ऑक्साइड 12 से 20 प्रतिशत तक

कच्चा माल

नील बनाने के लिए शुद्ध एल्युमीनियम सिलिकेट, सोडियम कार्बोनेट, सोडियम सल्फेट, क्वाट्ट्ज सिलिका, गंधक और कार्बन की आवश्यकता पड़ती है। कार्बन की जगह रोजिन का भी इस्तेमाल किया जा सकता है। अल्ट्रामेरीन ब्ल्यू बनाने का एक आधुनिक फार्मूला तथा निर्माण विधि यह है: काओलीन (भुनी हुई)

सोडियम कार्बोनेट (एन्हाइड्स) 100 भाग

सोडियम सल्फेट (एन्हाइड्र्स) 42 भाग

गंधक  52 भाग

कोयला 6 भाग

बिरोजा 8 भाग

उपर्युक्त फार्मूले से नील बनाने के लिए विभिन्न कार्यों को संपादित करना पड़ता है जो इस प्रकार हैं:

1. कच्चे माल की तैयारी

2. बारीक पिसे पदार्थ को जलाना 

3.हरे अल्ट्रामैरीन को महीन पीसना

4.अल्ट्रमैरीन ब्लू की परत से घुलनशील पदार्थों को निकालने के लिए पानी से धोना।

5. हरे अल्टूमैरीन को गंधक के साथ भूनकर नील बनाना

6. फिनिशिंग प्रक्रियाएं।

प्रारंभिक तैयारी: एक कड़ाही में चाइना क्ले को एक घंटे तक भूनने के बाद बॉल मिल में डालकर महीन पीस लिया जाता है। इससे इसका रंग हल्का भूरा हो जाता है और इसका स्वरूप रेत जैसा हो जाता है। सोडियम कार्बोनेट अथवा सोडा ऐश को भी कड़ाही में डालकर भून लिया जाता है। गहरा रंग हो जाने पर इसे 60 मैश की छलनी में छान लेते हैं। रिफाइंड क्वालिटी की गंधक को भी महीन पीसकर 60 मैश की छलनी से छान लिया जाता है। चारकोल या लकड़ी के कोयले को भी पीसकर 60 मैश की छलनी को छान लिया जाता है।

निर्माण विधि: सभी घटकों को महीन पाउडर में पीसने के बाद एक मिक्सिंग मशीन में अच्छी तरह हिलाया-मिलाया जाता है जिसके बाद इस पाउडर को ढक्कन लगी कुठालियों में ढूंस-ठूंसकर भरने के बाद 10 घंटे तक 800 से 900 डिग्री सेल्सियस तापमान पर रख दिया जाता है। इसके बाद इन कुठालियों को इस प्रकार ठंडा किया जाता है कि लगभग 20 घंटे बीतने पर इनका तापमान गिरकर 200 डिग्री सेल्सियस रह जाए। अब कुठाली के ढक्कन को खोलकर मिक्सचर को बाहर निकाल लेते हैं। इस मिक्सचर की दो परतें होती हैं। ऊपर की तह खूबसूरत नीले रंग की होती है। इसका रंग रॉबिन ब्ल्यू नील के समान होता है जबकि नीचे की परत हरियाली रंगत लिए लगभग नीली होती है। ऊपरी परत को अलग करने के बाद निचली परत के घटक मिक्सचर को पीसकर कड़ाही में एक इंच मोटा बनाकर भूनते हैं। भूनते समय मिक्सचर के वजन का 40वां भाग गंधक का पाउडर थोड़ा-थोड़ा छिड़कते रहते हैं जिससे मिक्सर का रंग और नीला हो जाता है। इस पदार्थ को दूसरे उपयोगों में लाया जाता है। 

अंतिम रूप देना: कुठाली में बननेवाली ऊपरी परत में मौजूद घुलनशील अशुद्धियों को दूर करने के लिए इसे छह फुट लंबे तीन फुट चौड़े और एक फुट गहरे फिल्टर बॉक्स में पानी से धोया जाता है। फिल्टर बॉक्सों में डालकर नील पर पानी डालते रहते हैं। यह प्रक्रिया तब तक चलती रहती है जब तक सोडियम सल्फेट नील से न निकल जाए। इसके बाद इसे चक्की में पीसा जाता है। इस दौरान थोड़ा-थोड़ा मीठा पानी डाला जाता है ताकि शेष अशुद्धियां भी पानी में घुलकर निकल जाएं। इसकी पिसाई मैदे की तरह एकदम बारीक की जाती है। फिर इस नील को एक हौदी में डालकर बैठने के लिए छोड देते हैं। चूंकि हौदी की पानी की सतह पर नील के बारीक कण तैरते रहते हैं इसलिए इस पानी को साइफन नली से निकालकर दूसरी हौदी में डाल दिया जाता है जहां इन कणों को बैठने में तीन-चार दिन का समय लग जाता है। पहलेवाली हौदी की तली में बचे पदार्थ को निथार दिया जाता है। इसके लिए लकड़ी की लगभग पांच टंकियां बनवाई जाती हैं जिसमें तीन-चौथाई भाग में पानी भरा रहता है। बड़ी हौदी में बने नील के पेस्ट को पांचों टंकियों में बराबर-बराबर मात्रा में भर दिया जाता है। हर टंकी में इस घोल को दो घंटे तक पड़े रहने देते हैं। इससे भारी कण तली में बैठ जाते हैं। हर टंकी में नीले रंग के पानी की ऊपरी परत को दूसरी टंकी में पहुंचाया जाता है, जहां छह घंटे तक इन कणों को तली में बैठने दिया जाता है। यह कण पहली टंकी में जमनेवाले कणों की बनिस्पत हल्के होते हैं। इन टंकियों में भरे ऊपर के पानी को अगली टंकी में पहुंचाकर अघुलनशील कणों को बैठने के लिए 12 घंटे के लिए छोड़ दिया जाता है। बचे हुए नीले पानी को दोबारा अगली टंकी में पहुंचा देते हैं। इस पानी में नील के अत्यंत सूक्ष्म कण अनेक दिनों तक नीचे नहीं बैठते। इन्हें बिठाने के लिए फिटकरी या नमक के तेजाब का इस्तेमाल किया जाता है। टंकियों के बदलते जाने के बाद नील क्रमश: हल्के वजन का, महीन कणों का, गहरा नीला तथा अधिक शक्तिशाली रंग का होता जाता है। हर टंकी की तली में बैठनेवाले नील को सुखा लिया जाता है। सूखने पर इसकी सख्त पपड़ी जम जाती है। हर टंकी की पपड़ी को तोड़कर अलग-अलग पीसने और छानने से अलग की नील तैयार हो जाती है। कपड़ों को सफेदी देने के अलावा नील को रबड़ और प्लास्टिक उद्योग में भी इस्तेमाल किया जाता है।


Comments

Popular posts from this blog

फिनायल उधोग कैसे शुरू करे

  फिनाइल उद्योग  (Phenol Industry) हमें होनेवाली अधिकांश बीमारियां जीवाणु विषाणु या विभिन्न प्रकार के कीड़े-मकोड़ों आदि के कारण होती हैं। बहुत से ऐसे कीट हैं जो शौचालयों, नालियों और कूड़ेदान आदि में पाए जाते हैं। इसके कारण इन स्थानों पर तेज दुर्गंध होती है। इस दुर्गध को दबाने के लिए आजकल अनेक प्रकार की फिनाइल बाजार में उपलब्ध है। इस फिनाइल को बनाने के लिए किसी विशेष मशीन की आवश्यकता नहीं पड़ती। साथ ही, इस उद्योग को कम पूंजी में शुरू किया जा सकता है। फिनाइल दो प्रकार की होती है-ठोस तथा द्रव टिकिया के रूप में। फिनाइल रोजिन क्रियोजोट ऑयल और साबुन के पानी बनाया जाता है। फिनाइल काले-भूरे रंग का होता है। पानी में डाल देने पर इससे दूधिया रंग का कीटाणुनाशक घोल बन जाता है। हमारे देश में तीन ग्रेड की फिनाइल बनाई जाती है। ग्रेड की फिनायल में क्रियोजोट ऑयल की सांद्रता कम होती है जबकि तीसरे ग्रेड में क्रियोजोट ऑयल अधिक मात्रा में मिला होता है। इसके विपरीत दूसरे ग्रेड में यह मध्यम मात्रा में मिला रहता है। क्रियोजोट ऑयल का निर्माण क्राइसिलिक क्रियोजोट से होता है। फिनाइल के मुख्य घटक क्राइसिलिक क्रियो

अगरबत्ती, धूप का उधोग कैसे शुरू करे

  अगरबत्ती, धूप आदि (Incense sticket) भारत एक धर्मप्रधान देश है। हमार देश में कोई भी धर्म क्यों न हो. उसमेंअगरबत्ती जलाने का प्रचलन है। सुबह-सबरे नहा-धोकर अधिकांश लोग अपने घरों में भगवान की मूर्ति या तस्वीर के आगे अगरबत्ती जलाते हैं या दुकानदार अपनी दुकान में पूजा करते हैं। न केवल भारत, बल्कि भारत के अधिकांश पड़ोसी देश नेपाल, श्रीलंका, बर्मा, फीजी, मारीशस, लंदन, मलेशिया, अफ्रीका,तिब्बत, भूटान" आदि सहित अधिकांश देशों में पूजा के लिए अगरबत्तियों के इस्तेमाल का प्रचलन है। यही कारण है कि इसकी मांग तथा खपत में कभी कमी नहीं आती। इस उद्योग को आप मात्र 750 से 1000 रुपए की पूंजी से शुरू कर सकते हैं। अगरबत्ती बनाने के लिए किसी भी प्रकार की मशीनरी की आवश्यकता नहीं होती। अगरबत्ती का उद्योग मैसूर, महाराष्ट्र, चेन्नई तथा अजमेर में खासा प्रचलित है। भारत में अगरबत्ती के 200 से भी अधिक प्रमुख निर्माता हैं जिनमें से अधिकांश मैसूर और बंगलोर में हैं। अगरबत्ती बनाने के लिए सामग्री विभिन्न किस्म की सुगंधित लकड़ियां, सुगंधित तेल, जड़ें, पेड़ों की छालें, कृत्रिम सुगंध, रेजिन, बालसम, मैदा लकड़ी और पिसा हु